प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार!Right To Private Defence

प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ! Right To Private Defence By Kanoon Ki Roshni Mein

भारतीय दंड संहिता के अध्याय 4 में धारा 96 से लेकर धारा 106 तक प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के बारे में प्रावधान किया गया है , जो आपको प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार देती है इसके अंतर्गत यह बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति पर ऐसा हमला करता है कि उसको शारीरिक क्षति हो तो वह व्यक्ति धारा 96 से धारा 106 तक जो प्रावधान किए गए हैं उनके प्रयोग में अगर वह अपना बचाव करता है तो ऐसा व्यक्ति अपराध नहीं करता है अगर कोई व्यक्ति एक व्यक्ति के साथ मारपीट करता है या एक व्यक्ति पर हमला करता है और कोई अन्य व्यक्ति ऐसे व्यक्ति का बचाव करता है और बचाव में उस हमला करने वाले पर मारपीट करता है तब भी यह अपराध नहीं होगा और साथ ही अगर आप अपनी संपत्ति के बचाव के लिए किसी पर हमला करते हैं और या किसी अन्य व्यक्ति की संपत्ति को बचाने के लिए आप हमला करते हैं फिर चाहे वह संपत्ति स्थावर हो या जंगम संपत्ति हो दोनों ही स्थितियों में आपके पास प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार होगा प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में काफी बारीकियां है इन बारीकियों को समझना ज्यादा जरूरी है अगर आप प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो नीचे दी गई धाराएं धारा 96 से 106 तक ध्यान से पढ़ें!

प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय में

धारा 96 IPC प्राइवेट प्रतिरक्षा में की गई बातें – कोई बात अपराध नहीं है जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में की जाती है !

टिप्पणी

धारा 96  को समझिए- धारा 96 केवल इस तथ्य को मान्यता प्रदान करती है कि जब भी कोई बात किसी की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में की जाए तो वह अपराध नहीं है प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है प्रतिरक्षा का कार्य है दुर्व्यवहार का नहीं ,मतलब इस अधिकार को किसी आक्रमण को उचित ठहराने के लिए ढाल की तरह उपयोग करने की स्वीकृति नहीं दी जा सकती, इसके लिए प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का सावधानीपूर्वक विवेचन आवश्यक है जिससे यह ज्ञात हो सके कि क्या अभियुक्त ने वास्तव में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग किया था अथवा नहीं!

जजमेंट👇

सुब्रह्मणि बनाम तमिलनाडु राज्य के जजमेंट में उच्चतम न्यायालय ने यह  अभीनिर्धारित किया कि  अभियुक्त के द्वारा प्राइवेट प्रतिरक्षा का तर्क प्रस्तुत करना सर्वदा आवश्यक नहीं नहीं है इस प्रतिरक्षा के तर्क को ना प्रस्तुत किए जाने के बावजूद न्यायालय इस पर विचार कर सकता है यदि परिस्थितियां यह दर्शाए कि इस प्रतिरक्षा का उपयोग न्याय संगत रूप से किया गया परंतु प्रस्तुत मामले में यह साबित ना होने के कारण अभियुक्त को इस प्रतिरक्षा का लाभ प्राप्त नहीं हुआ !

धारा 97 IPC शरीर तथा संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार – धारा 99 में अंतर्विष्ट निर्बंधनों के अध्ययधीन हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह –

पहला – मानव शरीर पर प्रभाव डालने वाले किसी अपराध के विरुद्ध अपने शरीर और किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की प्रतिरक्षा करें

दूसरा – किसी ऐसे कार्य के विरुद्ध जो चोरी लूट रिष्टी या आपराधिक अतिचार की परिभाषा में आने वाला अपराध है या जो चोरी लूट रिष्टी या आपराधिक अतिचार करने का प्रयत्न है अपनी या किसी अन्य व्यक्ति की चाहे जंगम हो चाहे स्थावर संपत्ति प्रतिरक्षा करें !

टिप्पणी

धारा 97 को समझिए इस धारा में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपने शरीर और संपत्ति के साथ किसी अन्य व्यक्ति के शरीर और संपत्ति की प्रतिरक्षा करने का अधिकार है परंतु यह अधिकार संहिता की धारा 99 में अंतर्विष्ट कतिपय निर्बंधनों या परीसीमाओं के अध्ययधीन अधीन है, धारा 97 के पहले भाग के अनुसार हर व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह मानव शरीर पर प्रभाव डालने वाले किसी अपराध के विरुद्ध अपने शरीर और किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की प्रतिरक्षा करें ! चूँकि मानव शरीर पर प्रभाव डालने वालेेेेेेे अपराध संहिता की  धाराओं 299 से लेकर 377 तक के बीच उल्लेखित हैंअतः यह स्पष्ट है कि शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार बहुत सारे मामलों या परिस्थितियों में प्राप्त है इस धारा के दूसरे भाग के अनुसार हर व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह चोरी लूट दृष्टि या आपराधिक अतिचार की परिभाषा में आने वाले आपराधिक कार्य के विरुद्ध अपनी या किसी अन्य व्यक्ति की जंगम या स्थावर संपत्ति की प्रतिरक्षा करें!

जजमेंट

आकौनती बोरा बनाम राज्य मैं गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने अभीनिर्धारित किया कि संपत्ति की प्रायवेट प्रतिरक्षा का प्रयोग करते समय अतिचारी को बेकब्जा करने या उसे बाहर निकाल देने में अतिचार कारित करने में काम में ली गई तात्विक चीजों को भी निकाल फेंकना सम्मिलित है पर जहां दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 145 के अधीन आदेश पारित कर यह घोषणा की गई है कि किसी विवादित संपत्ति में एक पक्षकार का कब्जा है और जिसमें उसका कब्जा तब तक बना रहेगा जब तक की विधि के सम्यक अनुक्रम में उसे उसे निष्कासित ना कर दिया जाए तो उस पक्षकार को उस संपत्ति को नष्ट करने का अधिकार नहीं है और इसलिए इस प्रकार की संपत्ति को नष्ट होने से बचाने के लिए विपक्षी पक्षकार को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त होगा जहां अपनी अवयस्क पुत्री को किसी व्यक्ति द्वारा लैंगिक उत्पीड़न होता देख कर अभियुक्त ने उस व्यक्ति पर हमला कर दिया तो ऐसी परिस्थिति में भी अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त है और यह तथ्य कि क्या मैंथुन उसकी पुत्री की सम्मति से किया जा रहा था अथवा नहीं महत्वपूर्ण नहीं है यह तथ्य की बाद में उस व्यक्ति की मृत्यु गिरने से हुई आंतरिक क्षति के कारण हुई या अभियुक्त द्वारा उस पर वार करने से या यह भी महत्वपूर्ण नहीं है अतः धारा 325 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि अपास्त करने योग्य है!

धारा 98 IPC ऐसे व्यक्ति के कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जो विकृतचित आदि हो- कार्य को करने वाले व्यक्ति के बालकपन समझ की परिपक्वता के अभाव, चित्रविकृति या मत्ता के कारण या उस व्यक्ति के किसी भ्रम के कारण अपराध नहीं है, तब हर व्यक्ति उस कार्य के विरुद्ध प्रायवेट प्रतिरक्षा का वही अधिकार रखता है जो वह उस कार्य के वैसा अपराध होने की दशा में रखता !

                                                                                                                         दृष्टांत

(क) य पागलपन के असर में क को जान से मारने का प्रयत्न करता है य किसी अपराध का दोषी नहीं है किंतु क को प्रायवेट प्रतिरक्षा का वही अधिकार है जो वह य के स्वास्थ्यचित होने की दशा में रखता !

टिप्पणी

धारा 98 यह सिद्धांत प्रतिपादित करती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ऐसे आक्रमणकारियों के विरुद्ध प्राप्त है जो मानसिक तौर पर स्वस्थचित नहीं होने के कारण कोई क्षति कार्य करने के बावजूद भी उसके लिए दोषसिद्ध नहीं होंगे क्योंकि वह मानसिक तौर पर स्वस्थ नहीं है, अर्थात एक सामान्य व्यक्ति को एक सामान्य व्यक्ति के विरुद्ध प्रायवेट प्रतिरक्षा का जितना अधिकार प्राप्त है उतना ही अधिकार उसे उस व्यक्ति के विरुद्ध ही प्राप्त है जो भारतीय दंड संहिता द्वारा प्रदत किसी प्रतिरक्षा के कारण अपने कार्य के लिए दायी नहीं है !( और सरल रूप में समझे कि कोई व्यक्ति जो विकृत जीत है यानी उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है और यह कोई व्यक्ति जो नशे की हालत में है जिसको यह नहीं पता कि वह क्या प्राप्त करने वाला है या कर रहा है तो ऐसे व्यक्ति के खिलाफ भी आपको प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त है)

धारा 99 IPC कार्य जिनके विरुद्ध प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है –यदि कोई कार्य जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती है सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में कार्य करते हुए लोक सेवक द्वारा किया जाता है या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है तो उस कार्य के विरुद्ध प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं है चाहे वह कार्य विधि अनुसार सर्वथा न्यायनुमत न भी हो!

उन दशाओं में जिनमें सुरक्षा के लिए लोक प्राधिकारियों की सहायता प्राप्त करने के लिए समय है प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है!

इस अधिकार के प्रयोग का विस्तार – किसी दशा में भी प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार उतनी अपहानि से अधिक अपहानि करने पर नहीं है, जितनी प्रतिरक्षा के प्रयोजन से करनी आवश्यक है
स्पष्टीकरण 1- कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक द्वारा ऐसे लोग सेवक के नाते किए गए या किए जाने के लिए प्रयतित कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता, जब तक कि वह यह यह ना जानता हो या विश्वास करने का कारण ना रखता हो कि उस कार्य को करने वाला ऐसा लोकसेवक है!
स्पष्टीकरण 2 – कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक के निदेश से किए गए या किए जाने के लिए प्रयतित किसी कार्य के विरुद्ध प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता जब तक कि वह यह ना जानता हो या विश्वास करने का कारण ना रखता हो कि उस कार्य को करने वाला व्यक्ति ऐसे निदेश से कार्य कर रहा है या जब तक कि वह व्यक्ति इस प्राधिकार का कथन ना कर दें जिसके अधीन वह कार्य कर रहा है या यदि उसके पास लिखित प्राधिकार है जो जब तक कि वह ऐसे प्राधिकार को मांगे जाने पर पेश ना कर दे!

टिप्पणी

यह धारा निर्बन्धनो या परिसीमाओ से सम्बन्धीत है जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार पर रखी गई है! दूसरे शब्दों में यह धारा कतिपय मूल सिद्धांतों को प्रतिपादित करती है जिन्हें प्राइवेट प्रतिरक्षा के मामलों में निर्णय देते समय सर्वदा ध्यान में रखा जाना चाहिए! जैसा कि पूर्व में ही लिखा जा चुका है धारा 97 स्पष्ट रूप से कहती है कि प्राइवेट सुरक्षा का अधिकार संहिता की धारा 99 के अधीन है अध्यधीन है इन निर्बन्धनो को चार सिद्धांतों के रूप से रूप में इस धारा के अंतर्गत चार पैराओ में स्पष्ट किया गया है!

पहला पैरा – जब भी कोई कार्य सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में कार्य करते हुए लोक सेवक द्वारा किया जाता है या किए जाने का प्रयत्न किया जाता है तो यदि उससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कार्य नहीं होती तो चाहे वह कार्य विधि अनुसार सर्वथा न्यायनुमत ना भी हो उसके विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है ! ऐसे मामलों में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि लोग सेवक द्वारा कार्य सद्भावपूर्वक जिसका अर्थ धारा 52 में दिया गया है किया गया!(धारा 52 – कोई बात सद्भाव पूर्वक की गई या विश्वास की गई नहीं कही जाती जो सम्यक सतर्कता और ध्यान के बिना की गई या विश्वास की गई हो)

दूसरा पैरा – दूसरा पैरा इसी प्रकार का अधिकार एक ऐसे व्यक्ति को प्रदान करता है जो लोक सेवक के निदेश से चाहे वह निदेश विधि अनुसार सर्वथा न्यायनूमत न भी हो कोई कार्य करता है या करने का प्रयत्न करता है ऐसे मामलों में यह भी साबित होना चाहिए कि उसने यह कार्य सद्भावपूर्वक अपने पदाभास में किया और साथ ही उससे प्रतिरक्षक को मृत्यु या घोर उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती! लोक सेवक के निदेश में कार्य करने वाला व्यक्ति लोक सेवा की तरह ही इस धारा के अंतर्गत संरक्षित है चाहे लोक सेवक का निदेश विधि अनुसार सर्वथा न्यायनूमत न भी हो पहले पैरा की तरह यहां पर भी अविधिकता संरक्षित नहीं है, पर अनियमितता संरक्षित है!

तीसरा पैरा – तीसरा पैरा यह महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित करता है कि उन दशाओं में प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है जिनमें सुरक्षा के लिए लोक प्राधिकारीयों की सहायता प्राप्त करने के लिए समय है! इस उपबंध के पीछे यह उद्देश्य है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के ऐसे घोर दुरुपयोग पर नियंत्रण रखा जाए जिनमें हर व्यक्ति विधि को अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करेगा जबकि लोग प्राधिकारीयों से सहायता प्राप्त करने का उसके पास पर्याप्त समय है! विधि ना तो किसी को विधि को अपने हाथ में लेने की अनुमति देती है और ना ही विधि को हाथ में लेना उचित है विधि को हाथ में लेना अनर्थकर होगा और इसलिए यह उपबंध इस प्रकार की परिस्थितियों से निपटने के लिए सम्मिलित किया गया है विधि इस बात पर जोर देती है कि खतरनाक परिस्थितियों से निपटने के लिए पहले युक्तियुक्त अवसर लोक प्राधिकारीयों को मिलना चाहिए!

चौथा पैरा – चौथा तेरा कदाचित धारा 99 का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है! इसके अनुसार किसी दशा में भी प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार प्रतिरक्षा के प्रयोजन से अधिक अपहानि करने का नहीं है! प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्रतिरक्षा का अधिकार है, दुर्व्यवहार का नहीं, और इसलिए प्रतिरक्षक को सर्वदा युक्तियुक्त बल का ही प्रयोग करना चाहिए जिसका अर्थ यह है कि किसी भी दशा में यह बल अत्यधिक नहीं होना चाहिए और कभी भी शरीर की या संपत्ति की जैसा भी मामला हो प्रतिरक्षा के उद्देश्य से जितना आवश्यक हो उससे अधिक बल नहीं होना चाहिए! बल की मात्रा प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करती है, और इसके लिए कोई सामान्य नियम नहीं हो सकता! परंतु, ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि प्रतिरक्षक से यह आशा नहीं की जाती की वह सुनहरे तराजू में आवश्यक बल की मात्रा को तोले, और इस विषय में न्यायालय द्वारा एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है!

जजमेंट

मुंशीराम बनाम दिल्ली प्रशासन उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की विधि यह नहीं कहती कि वह व्यक्ति जिसकी संपत्ति पर अतिचारियो द्वारा बलपूर्वक कब्जा करने का प्रयत्न किया जाए, वहां से भागकर प्राधिकारीयों से सुरक्षा मांगने जाए! प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार एक सामाजिक उद्देश्य को पूरा करता है इस अधिकार का निर्वचन उदारतापूर्वक किया जाना चाहिए! ऐसा अधिकार ना केवल दुश्चारित्र लोगों पर रोक लगाने का प्रभाव डालेगा, वरन स्वतंत्र नागरिक में सही उत्साह का संचार भी करेगा!

धारा 100 IPC शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने पर कब होता है – शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार पूर्ववर्ती अंतिम धारा में वर्णित निर्बन्धनो के अधीन रहते हुए हमलावर की स्वेच्छाया मृत्यु कारित करने या कोई अन्य अपहानि कारित करने तक है, यदि वह अपराध, जिसके कारण उस अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है, एतस्मिनपश्चात प्रगणित भाँतियो में से किसी भी भाँति का है अर्थात-

पहला – ऐसा हमला जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि अन्यथा ऐसे हमले का परिणाम मृत्यु होगा;

दूसरा – ऐसा हमला जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि अन्यथा ऐसे हमले का परिणाम घोर उपहति होगा;

तीसरा – बलात्संग करने के आशय से किया गया हमला;

चौथा – प्रकृति विरुद्ध काम तृष्णा की तृप्ति के आशय से किया गया हमला;

पांचवा – व्यपहरण या अपहरण करने के आशय से किया गया हमला;

छठा – इस आशय से किया गया हमला कि किसी व्यक्ति का ऐसा परिस्थितियों में सदोष परिरोध किया जाए, जिनसे उसे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि वह अपने आप अपने को छुड़वाने के लिए लोक प्राधिकारीयों की सहायता प्राप्त नहीं कर सकेगा!

सातवां – अम्ल फेंकने या देने का कृत्य या अम्ल फेंकने या देने का प्रयास करना जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि ऐसे कृत्य के परिणाम स्वरुप अन्यथा घोर उपहति कारित होगी!                                                                                 

टिप्पणी

यह धारा इस बात को स्पष्ट करती है कि हमारे देश की आपराधिक विधि इस तथ्य को स्वीकार करती है कि कुछ परिस्थितियां ऐसी भी हो सकती हैं जिनमें व्यक्ति के पास अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए आक्रमणकारी की मृत्यु कार्य करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प ना हो! इन परिस्थितियों को इस धारा के अंतर्गत 6 खंडों के रूप में निश्चित किया गया है! आरंभ में यह धारा स्पष्टत: यह कहती है कि यह 6 परिस्थितियां जिनके अंतर्गत प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में आक्रमणकारी की मृत्यु या अन्य कोई अपहानि कारित की जा सकती है, संहिता की धारा 99 के अंतर्गत उल्लेखित सामान्य निर्बन्धनो के अध्यधीन है! यह धारा इन परिस्थितियों में से कोई भी परिस्थिति उपस्थित होने पर प्रतिरक्षक स्वेच्छाया आक्रमणकारी की मृत्यु या अन्य कोई अपहानि कारित करने की शक्ति प्रदान करती है!

धारा 101 IPC कब ऐसे अधिकार का विस्तार मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि कारित करने तक होता है – यदि अपराध पूर्वगामी प्रगणित भाँतियो में से किसी भी भाँति का नहीं है, तो शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार हमलावर की मृत्यु स्वेच्छाया कारित करने तक का न होकर धारा 99 के अंतर्गत वर्णित निर्बन्धनो के अध्यधीन हमलावर की मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि स्वेच्छाया कारित करने तक का होता है!

टिप्पणी

यह उपबन्ध धारा 100 का उपप्रमेय है इसके अनुसार यदि अपराध धारा 100 के अंतर्गत प्रगणित छह खंडों में प्रगणित भाँतियो में से किसी भी भाँति का नहीं है तो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार हमलावर की मृत्यु स्वेच्छाया कारित करने तक का ना होकर धारा 99 के अंतर्गत वर्णित निर्बन्धनो के अध्यधीन मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि स्वेच्छाया कारित करने तक का होता है!

जजमेंट

योगेंद्र मोराराजी बनाम राज्य में एक विधि विरुद्ध जमाव के सदस्यों ने अभियुक्त की गाड़ी को जो एक स्टेशन वैगन थी इस सामान्य उद्देश्य से रोकना और पकड़ना चाहा कि उसे क्षति कारित करने की धमकी देकर उससे धन उद्दापित किया जाए अभियुक्त ने अपना रिवाल्वर से 3 राउंड गोलियां चलाई जिनमें से एक से जमाव के एक सदस्य की मृत्यु हो गई उच्चतम न्यायालय ने अभीनिर्धारित किया कि जमाव के सदस्यों ने जैसे ही गाड़ी को रोकने के लिए अपने हाथ खड़े किए उसी समय संहिता की धारा 101 के अंतर्गत प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उत्पन्न हो गया परंतु धारा 100 के अंतर्गत प्रगणित अपराधों में से कोई अपराध कार्य किए जाने की आशंका नहीं थी फलत: यदि जमाव के सदस्यों ने गाड़ी पर पत्थर या ईट के टुकड़े फेके भी हो तो भी अभियुक्त को आवश्यक हो तो हवा में गोली चलाकर गाड़ी समेत भाग जाना चाहिए था अतः इन परिस्थितियों में से मैं उसके द्वारा मृतक की मृत्यु कार्य करना विधि द्वारा न्यायनुमत नहीं था!

धारा 102 IPC शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारंभ और बना रहना – शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उसी क्षण प्रारंभ हो जाता है, जब अपराध करने के प्रयत्न या धमकी से शरीर के संकट की युक्तियुक्त आशंका पैदा होती है, चाहे वह अपराध किया ना गया हो, और वह तब तक बना रहता है जब तक शरीर के संकट की ऐसी आशंका बनी रहती है!

टिप्पणी

यह धारा शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिक के विषय में दो महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में बात करती है – यह अधिकार किस क्षण आरंभ होता है और यह कब तक बना रहता है! प्रथम पहलू के बारे में यह धारा यह स्पष्ट करती है कि शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उसी क्षण प्रारंभ हो जाता है जब अपराध करने के प्रयत्न या धमकी से शरीर के संकट की युक्तियुक्त आशंका पैदा होती है, चाहे वह अपराध किया ना गया हो! द्वितीय पहलू के बारे में यह धारा यह कहती है कि शरीर की प्रतिरक्षा का अधिकार तब तक बना रहता है जब तक शरीर के संकट की ऐसी आशंका बनी रहती है यह विधि यह नहीं कहती कि इस अधिकार के प्रयोग के लिए व्यक्ति को तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जब तक कि शरीर पर पहला वार कर न दिया जाए! यह अधिकार उसी क्षण निहित हो जाता है जिस क्षण शरीर के संकट की युक्तियुक्त आशंका पैदा होती है! यह आशंका अपराध के प्रति या अपराध की धमकी से पैदा होती है! इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि अपराध कार्य किया गया हो क्योंकि यह अधिकार प्रतिरक्षा का अधिकार है इसलिए यह केवल आसन्न अविधिक हमले से सुरक्षा करने के लिए प्राप्त है, हमलावर को दंडित करने के लिए नहीं क्योंकि आशंका वास्तविक होनी चाहिए काल्पनिक नहीं किसी अपराध का प्रयत्न या उसकी धमकी अवश्य होनी चाहिए! धमकी से उपस्थिति और आसन्न संकट अवश्य उत्पन्न होना चाहिए!

धारा 103 IPC कब संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक का होता है – संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार धारा 99 में वर्णित निर्बन्धनो के अध्यधीन दोषकर्ता की मृत्यु या अन्य अपहानि स्वेच्छाया कारित करने तक का है यदि वह अपराध जिसने जिसके किए जाने के या किए जाने के प्रयत्न के कारण उस अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है एतस्मिनपश्चात प्रगणित भाँतियो में से किसी भी भाँति का है अर्थात-

पहला – लूट

दूसरा – रात्रो -गृह – भेदन

तीसरा – अग्नि द्वारा रिष्टी जो किसी ऐसे निर्माण तंबू या जलयान को की गई है, जो मानव आवास के रूप में या संपत्ति की अभिरक्षा के स्थान के रूप में उपयोग में लाया जाता है!

चौथा – चोरी रिष्टी या ग्रह अतिचार जो ऐसी परिस्थितियों में किया गया है जिनसे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि यदि प्राइवेट प्रतिरक्षा के ऐसे अधिकार का प्रयोग न किया गया तो परिणाम मृत्यु या घोर उपहति होगा!

टिप्पणी

यह धारा अनन्य रूप से केवल संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के विषय से संबंधित है यह उन परिस्थितियों को स्पष्ट करता है जिनके अंतर्गत प्रतिरक्षक अपनी संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अंतर्गत मृत्यु या अन्य अपहानि स्वेच्छाया कारित कर सकता है इस प्रकार से इस धारा और धारा 100 के बीच एक समानता है क्योंकि धारा 100 शरीर के प्राइवेट प्रतिरक्षा के मामलों में इसी विषय से संबंधित है जैसा की उस धारा के अंतर्गत कहा गया है वैसा ही इस धारा के अंतर्गत भी स्पष्ट किया गया है कि यह धारा भी संहिता की धारा 99 के अंतर्गत दिए गए निर्बन्धनो के अध्यधीन है वे परिस्थितियां जिनके अंतर्गत मृत्यु या अन्य अपहानि कारित की जा सकती है!

धारा 104 IPC ऐसे अधिकार का विस्तार मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि कारित करने तक का कब होता है – यदि वह वह अपराध जिसके किए जाने या जिसके किए जाने के प्रयत्न से प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है, ऐसी चोरी, रिष्टी या आपराधिक अतिचार है जो पूर्वगामी अंतिम धारा में प्रगणित भाँतियो में से किसी भी भांति का ना हो तो उस अधिकार का विस्तार स्वेच्छाया मृत्यु कारित करने तक का नहीं होता किंतु उसका विस्तार धारा 99 में वर्णित निर्बन्धनो के अध्यधीन दोषकर्ता की मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि स्वेच्छाया कारित करने तक का होता है!

टिप्पणी

यह धारा संहिता संहिता की धारा 103 का उपप्रमेय है इसके अनुसार यदि वह अपराध जिसके लिए जिसके किए जाने या जिसके किए जाने के प्रयत्न से प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है धारा 103 के अंतर्गत उल्लेखित चोरी, रिष्टी या आपराधिक अतिचार की भांति का ना हो तो उस अधिकार का विस्तार स्वेच्छाया मृत्यु कारित करने तक का नहीं होता किंतु उसका विस्तार धारा 99 में वर्णित निर्बन्धनो के अध्यधीन दोषकर्ता की मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि स्वेच्छाया कारित करने तक का होता है!

धारा 105 IPC संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारंभ और बना रहना – संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार तब प्रारंभ होता है जब संपत्ति के संकट की युक्तियुक्त आशंका प्रारंभ होती है!
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार चोरी के विरुद्ध अपराधी के संपत्ति सहित पहुंच से बाहर हो जाने तक अथवा या तो लोक प्राधिकारियों की सहायता अभीप्राप्त कर लेने या संपत्ति प्रत्युद्धत हो जाने तक बना रहता है!
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार लूट के विरुद्ध तब तक बना रहता है जब तक अपराधी किसी व्यक्ति की मृत्यु या उपहति या सदोष अवरोध कारित रहता या कारित करने का प्रयत्न करता रहता है अथवा जब तक तत्काल मृत्यु का या तत्काल उपहति का या तत्काल व्यक्तिक अवरोध का भय बना रहता है!
संपत्ति की प्राइवेट परीक्षा का अधिकार आपराधिक अतिचार या रिष्टी के विरुद्ध तब तक बना रहता है जब तक अपराधी आपराधिक अतिचार या रिष्टी करता रहता है
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार रात्रो-गृह-भेदन के विरुद्ध तब तक बना रहता है जब तक ऐसे गृह-भेदन से आरंभ हुआ गृह-अतिचार होता रहता है!

टिप्पणी

जबकि संहिता की धारा 102 अनन्य रूप से शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के प्रारंभ और उसके बने रहने से संबंधित है यह धारा संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और उसके बने रहने से संबंधित है, इस धारा के पहले पैरा के अनुसार संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उसी क्षण प्रारंभ हो जाता है जिस क्षण संपत्ति के संकट की युक्तियुक्त आशंका प्रारंभ होती है! इस प्रतिरक्षा के प्रारंभ होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि पहले संपत्ति संबंधी अपराध या उसका प्रयत्न होना आवश्यक है यह अधिकार उसी क्षण निहित हो जाता है जिस क्षण संपत्ति के संकट की युक्तियुक्त आशंका प्रारंभ होती है यह पैरा केवल इस प्रतिरक्षा के प्रारंभ होने के प्रश्न तक सीमित है उसके बने रहने तक नहीं! इस धारा में इसी इस पैरा के पश्चात शेष पैरा अनन्य रूप से इस अधिकार के बने रहने तक की अवधि के बारे में बतलाती है और विभिन्न अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न मापदंड बतलाए गए हैं

धारा 106 IPC घातक हमले के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जब तक कि निर्दोष व्यक्ति को हानि होने का जोखिम है – जिस हमले से मृत्यु की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित होती है, उसके विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने में यदि प्रतिरक्षक ऐसी स्थिति में हो कि निर्दोष व्यक्ति की अपहानि की जोखिम के बिना वह उस अधिकार का प्रयोग कार्यसाधक रूप से न कर सकता हो, तो उसके प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार वह जोखिम उठाने तक का है!

                                                                                                                            दृष्टांत

क पर एक भीड़ द्वारा आक्रमण किया जाता है जो उसकी हत्या करने का प्रयत्न करती है वह उस भीड़ पर गोली चलाए बिना प्राइवेट प्रतिरक्षा के अपने अधिकार का प्रयोग कार्यसाधक रूप से नहीं कर सकता और वह भीड़ में मिले हुए छोटे छोटे शिशुओं को अपहानि करने की जोखिम उठाए बिना गोली नहीं चला सकता यदि वह इस प्रकार गोली चलाने से उन शिशुओं में से किसी शिशु की अपहानि करे तो क कोई अपराध नहीं करता!

Note:- ब्लॉग पढ़ने में अगर आपको कोई समस्या आती है तो अपना सुझाव जरूर दें!

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