423 IPC IN HINDI

423 IPC Explanation In Kanoon Ki Roshni Mein Words:

जो कोई बेईमानी से या कपट पूर्वक किसी ऐसे दस्तावेज़  को हस्ताक्षरित करेगा, पालना (किर्यान्वित) करता है  करेगा, या उसका पक्षकार बनेगा,जिससे किसी सम्पत्ति का, या उसमें के किसी हित (लाभ) का,ट्रांसफर किया जाना है जिसमें ऐसे ट्रांसफर या भार के प्रतिफल (किसी भी चीज के बदले दि गई कोई चीज या मूल्य ) से सम्बन्धित उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों से सम्बन्धित, जिसके या जिनके उपयोग या फायदे के लिए उसका बनाया जाना वास्तव में इरादा है के द्वारा कोई झुटा कथन लिखा हुआ है वह दण्डित किया जाएगा।

Note निम्नलिखित कानूनी परिभाषा भी देखें।

423 IPC अन्तरण के ऐसे विलेख का जिसमें प्रतिफल के सम्बन्ध में मिथ्या कथन अन्तर्विष्ट है, बेईमानी से या कपटपूर्वक निष्पादन-

जो कोई बेईमानी से या कपटपूर्वक किसी ऐसे विलेख को हस्ताक्षरित करेगा, निष्पादित करेगा, या उसका पक्षकार बनेगा, जिससे किसी सम्पत्ति का, या उसमें के किसी हित का, अन्तरित किया जाना, या किसी भार के अधीन किया जाना, तात्पर्यित है, और जिसमें ऐसे अन्तरण या भार के प्रतिफल से सम्बन्धित, या उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों से सम्बन्धित, जिसके या जिनके उपयोग या फायदे के लिए उसका प्रवर्तित होना वास्तव में आशयित है, कोई मिथ्या कथन अन्तर्विष्ट है, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।

note: इस धारा के अधीन अपराध असंज्ञेय, जमानतीय और शमनीय है जब विचारणीय न्यायालय ऐसा करने की अनुमति दे, और यह किसी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

सुप्रीम  कोर्ट  के 421 I.P.C. से  सम्बंधित  निर्णय-

1. मोहम्मद काजिम अली बनाम जोराब्दी नस्कर, (1919) 46 कलकत्ता 986.बेनामी विलेख का बेईमानी से निष्पादन इस धारा के अधीन दंडनीय है। यह कथन कि क्रेता ने सम्पूर्ण भूमि खरीदी, जबकि विक्रेता उस भूमि के केवल एक भाग को बेचने के लिए ही अधिकृत था, इस धारा की परिधि में नहीं आता।

2. मथुरा नाथ सहदेव बनाम बिरला उरांव, 1952 क्रि० एल० जे० 1089. जहाँ अभियुक्तों ने अपने कब्जे में भूमि के क्षेत्रफल के बारे में मिथ्या कथन कर सरकार से ऋण प्राप्त कर लिया, और प्रतिफल के लिए आरोप भूमि के ऊपर बनाया गया, यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्तों को इस धारा के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि कथन भूमि के ऊपर बनाए गए आरोप के प्रतिफल से सम्बन्धित नहीं था।

3. विधि परामर्श बनाम अहिलाल मंडल (1921) 48 कलकत्ता 911. परन्तु जहाँ अभियुक्त एक लड़की के साथ विवाह करने में असफल रहा, और बाद में उसने उस लड़की के पक्ष में इस मिथ्या व्यपदेशन से एक करार बनाया और रजिस्ट्रीकृत किया कि उसने उसके साथ विवाह कर लिया था और उसके मेहर के बदले में उसे भूमि का एक भाग हस्तांतरित करना तात्पर्यित था, यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त का स्पष्ट आशय उस प्रतीक के मिथ्या हैसियत के लिए लड़की और उसके पति को क्षति कारित करना था, और इसलिए वह इस धारा के अधीन दोषी था।

4.लकपा शेरपा बनाम सिक्किम राज्य  2004 क्रि० एल० जे० 3488 (सिक्किम), में याची ने अभिकथित रूप से संहिता की धारा 423 के अधीनअपराध किया। मजिस्ट्रेट ने इस तथाकथित अपराध का संज्ञान तीन वर्ष की परिसीमा की अवधि के पश्चात् लिया। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 468 (1) में परिसीमा की अवधि समाप्त होने के पश्चात् उन अपराधों के संज्ञान लिये जाने के बारे में रोक है जिन अपराधों का उल्लेख इस उपबंध में किया गया है। सिक्किम उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 468 (1) आज्ञापक है, अतः विचारण के पश्चात् दण्ड संहिता की धारा 423 के अधीन उसकी दोषसिद्धि अधिकारिता के बिना होने के कारण विधि के अंतर्गत अनुचित है।

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