420 IPC IN HINDI

420 IPC Explanation In Kanoon Ki Roshni Mein Words:

इस धारा के अधीन अभियुक्त के द्वारा छल किया जाना आवश्यक है।जिसके द्वारा सच को छुपा कर उस व्यक्ति से बेईमानी से बहला फुसला कर या तो वह कोई सम्पत्ति किसी व्यक्ति को दिलवा दे या खुद लेले , या किसी मूल्यवान प्रतिभूति  (ऐसा कोई दस्तावेज़ जों कोई अधिकार देता हो या समाप्त करता हो) या कोई चीज  जिस पर हस्ताक्षर या मोहर हो जिसे  बाद मे मूल्यवान प्रतिभूति मे बदला जा सके को पूरा का पूरा  या कुछ भाग रच दे, परिवर्तित कर दे या नष्ट कर दें। छल से सम्बन्धित सभी धाराओं में से इस धारा के अधीन अधिकतम दंड की व्यवस्था है। अभियुक्त के द्वारा बेईमानी से कार्य न किए जाने पर यह धारा लागू नहीं होती।

Note निम्नलिखित कानूनी परिभाषा भी देखें।

420 IPC छल करना और सम्पत्ति परिदत्त करने के लिये बेईमानी से उत्प्रेरित करना –

जो कोईछल करेगा और तद्द्द्वारा उस व्यक्ति को, जिसे प्रवंचित किया गया है, बेईमानी से उत्प्रेरित करेगा कि वह कोई सम्पत्ति किसी व्यक्ति को परिदत्त कर दे, या किसी भी मूल्यवान् प्रतिभूति को, या किसी चीज को, जो हस्ताक्षरित या मुद्रांकित है, और जो मूल्यवान प्रतिभूति में संपरिवर्तित किये जाने योग्य है, पूर्णतः या अंशतः रख दें. परिवर्तित कर दे या नष्ट कर दे वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तुक को हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

note :धारा 420 के अधीन अपराध संज्ञेय, अजमानतीय और शमनीय है जब विचारणीय न्यायालय इसकी अनुमति दे, और यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

 

सुप्रीम  कोर्ट  के 418 I.P.C. से  सम्बंधित  निर्णय-

1. कपूरचंद मगनलाल चंदेरिया बनाम दिल्ली प्रशासन, 1985 एस० सी० सी० (क्रि०) 441. जहाँ अभियुक्त वास्तव में यह विश्वास करता था, कि किसी मामले में सीमा शुल्क विभाग से अनुमति लेना आवश्यक था, और इसलिए उसने अपने शपथ पत्र में परिवर्तन किया, इस धारा के अधीन की गई उसकी दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया गया क्योंकि उसने किसी के साथ छल करने का प्रयास नहीं किया था और घटना के पश्चात् दीर्घ बीस वर्ष व्यतीत हो चुके थे।त्ति’ हैं।

2.शंकरलाल विश्वकर्मा बनाम राज्य, 1991 क्रि० एल० जे० 2808 (मध्य प्रदेश) जहाँ मिथ्या मजदूरी बिलों के अन्तर्गत विद्यालय निरीक्षक ने रकम उठाई, उसे इस धारा के अधीन दोषसिद्ध किया गया और ऐसा ही वित्तदाताओं के षड़यंत्रकारी दल के साथ किया गया जिन्होंने एकनिर्माणकर्ता को कूटकृत करेंसी देकर उसके साथ कपट किया।

3.तुलसी राम बनाम राज्य, (1963) 1 क्रि० एल० जे० 623 (एस० सी०) जहां अभियुक्तों ने रेल से कम मात्रा में माल भेजा और फिर रेलवे रसीदों में यह दर्शाकर हेर फेर किया कि भेजा गया विनिर्दिष्ट माल अधिक मात्रा में था. और अपने फर्म के पक्ष में उन्हें पृष्ठांकित किया, जिसने विनिर्दिष्ट अधिक मात्रा के माल के ऊपर अधिक रकम प्राप्त कर ली, और कई बैंकों के पक्ष में मांग देय ड्राफ्ट बनवा लिए, उन्हें इस धारा के अधीन अपराध कारित करने के लिए दोषसिद्ध किया गया।

4.राम प्रसाद चैटर्जी बनाम मोहम्मद जाकिर कुरेशी, 1987 क्रि० एल० जे० 1485 (कलकत्ता).इस ज्ञान के साथ चैक जारी करना कि वे चैक अस्वीकार कर दिए जाएंगे, इस पास के अधीन दायित्व आकर्षित करता है।

5. मे० ओ० पी० टी० एस० मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2001 क्रि० एल० जे० 1489 (आंध्र प्रदेश) परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अस्तित्व में आ जाने के बावजूद खरीदे गए माल के मूल्य के भुगतान हेतु या हस्त ऋण के भुगतान हेतु या पूर्व ऋण चुकाने हेतु या पूर्व में उधार दिए गए माल के मूल्य के भुगतान हेतु जारी किए गए चैक या उत्तर तारीख चैक के अनादृत हो जाने पर संहिता की धारा 420 के अधीन अभियोजन चलने योग्य है यदि आरोप पत्र में यह अभिकथन हो कि चैक जारी किए जाने के समय भी अभियुक्त का बेइमानीपूर्ण आशय भुगतान नहीं करने का था और अनादृत हुए बैंक जारी करने के कार्य से मानसिक, शारीरिक या ख्याति संबंधी अपहानि कारित हुई है। परन्तु

6.जी० के० मोहन्ती बनाम प्रताप किशोर दास, 1987 क्रि० एल० जे० 1446 (उड़ीसा) अन्यथा चैक ऐसा व्यपदेशन नहीं है कि लेखीवाल के खाते में पर्याप्त रकम है।

7.व्ही व्ही  एल० एन० चारी बनाम एन० ए० मार्टिन, 1983 क्रि० एल० जे० 106 (केरल)जहाँ अभियुक्त ने दिए गए मामले का भुगतान उत्तर तारीख चैक के द्वारा किया, और चैक अस्वीकृत कर दिया गया, यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस धारा के अधीन कोई अपराध कारित नहीं हुआ क्योंकि परिवाद में ऐसा कोई अभिकथन नहीं था कि चैक देते समय अभियुक्त को यह ज्ञान था कि उस खाते में पर्याप्त रकम नहीं थी। ऐसे मामलों में केवल सिविल दायित्व होगा ।

8.सीताकान्त गोविन्द भोबे बनाम जे० एक्स० मिरान्डा, 1977 क्रि० एल० जे० 531 (गोवा).सम्यक् रूप से हस्ताक्षर की हुई चैक की रसीद मूल्यवान प्रतिभूति नहीं है और इसे मूल्यवान प्रतिभूति में सम्परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

9.राम परशाद बनाम धन्ना, ( 1939) 41 पी० एल० आर० 198 जहाँ अभियुक्त ने परिवादी को लेखा बही लाने के लिए कहा ताकि वह अपना हिसाब चुकता कर सके, और परिवादी ने उसके समक्ष लेखा बही लाकर रख दी, और अभियुक्त ने उस पन्ने का वह भाग फाड़ दिया जिस पर उसके अंगूठे का चिन्ह था, यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त ने धारा 420 के अधीन नहीं बल्कि धारा 477 के अधीन अपराध कारित किया 18

10.गोपालकृष्णन बनाम राज्य’1994 क्रि० एल० जे० एन० ओ० सी० 339 (मद्रास)  में अभियुक्त के अनुरोध पर परिवादी ने चिट में अंशदान किया। परिवादी ने नीलाम में सफलतापूर्वक बोली लगाई। अपने वचन के अनुसार अभियुक्त बोली राशि देने में असमर्थ रहा। विवाद की प्रकृति सिविल होने के कारण आपराधिक कार्यवाहियां प्रारम्भ करने का कोई समुचित आधार नहीं था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वचनानुसार मात्र बोली राशि दे सकने में सक्षम न हो सकने पर धारा 420 के अधीन दायित्व नहीं हो सकता। अतः बेईमानी से कार्य न किए जाने के कारण कार्यवाही अवैध है।

11.राम प्रकाश सिंह बनाम बिहार राज्य ए आई० आर० 1998 एस० मौ० 296. में अभियुक्त जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी था। व्यापार बढ़ाने और पदोन्नति प्राप्त करने के लिए उसे मिथ्या और झूठे बीमा प्रस्ताव आरम्भ करने का दोषी पाया। गया। यद्यपि उसे कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ परन्तु बीमा पालिसियों के जारी न किए जा सकने के कारण निगम को हानि हुई। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चूंकि ऐसे प्रस्तावों से निगम की प्रतिष्ठा को आघात लगा है अतः अभियुक्त धारा 420 के अधीन दोषी है।

12.सोमा चक्रवर्ती बनाम दिल्ली राज्य (केन्द्रीय जांच ब्यूरो के द्वारा ) 2007 क्रि० एल० जे० 3257 (एस० सी०) में अभियुक्तों के विरुद्ध प्रचुर सरकारी धन के कपट और दुर्विनियोग के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 228 के अधीन आरोप की विरचना की जा रही थी। अपीलार्थी अभियुक्त के विरुद्ध यह आरोप था कि उसने बेईमानी से झूठे बिलों की प्रक्रिया प्रारंभ की और उनका सत्यापन किया। यह बिल न तो समुचित प्राधिकारी द्वारा प्रस्तुत किये गये थे और न ही उन पर उसके हस्ताक्षर थे। बिल रजिस्टर में भी उनकी प्रविष्टि नहीं थी। उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि अपीलार्थी के विरुद्ध आरोपों की विरचना उचित थी और उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के द्वारा कहा गया कोई विचार विचारण न्यायालय जो यथासंभव शीघ्रता से मामले को गुणावगुण के. आधार पर निपटायेगा, को प्रभावित नहीं करेगा।

13.एन० देविंद्रप्पा बनाम कर्नाटक राज्य 2007 क्रि० एल० जे० 2949 (एस० सी०) में अभियुक्त ने परिवादी और अन्य कई व्यक्तियों को एक ऐसी भूमि के विक्रय के लिये, जो उसकी स्वयं की नहीं थी, भागतः संदाय के लिये उत्प्रेरित किया। उसने उसकी झूठी रसीद भी दी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसका आशय बेईमानीपूर्ण था और धारा 420 के अधीन उसकी दोषसिद्धि उचित थी।

फूल और अवैध या अनैतिक संविदा

14.बनमाली त्रिपाठी बनाम एम्पe (1974) 22 पटना 263: जहाँ अभियुक्त एक युवा विवाहिता स्त्री को उसकी मां की सम्मति से मां के घर से अपने साथ ले गया और एक धनवान व्यक्ति के साथ उसका विवाह कर दिया, और बदले में अभियुक्त को वधू कीमत प्राप्त हुई, उन्हें छल के लिए दोषसिद्ध किया गया।

15.एम्स बनाम जानी होरा, 13 क्रि० एल० जे० 521. जहाँ परिवादी के साथ अभियुक्त ने रकम लेकर अपनी पुत्री को उसे किराये पर देने का करार किया ताकि परिवादी उसे एक वर्ष तक अपने रखैल के रूप में अपने संग रख सके, बाद में अभियुक्त ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया, और प्राप्त की गई अग्रिम राशि भी उसने नहीं लौटाई, न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई अवैध संविदा की गई हो जो सिविल न्यायालय में प्रवर्तित न की जा सके, तो आपराधिक विधि के अन्तर्गत उसका अभियोजन भी अनुज्ञेय नहीं है। इसी प्रकार,

16.परमेश्वर दत्त बनाम क्वीन एम्म०, (1836) 8 इलाहाबाद 20 जहाँ दो व्यक्ति कोई अपराध कारित करने की संविदा करते हैं, और बाद में उनमें से एक इस संविदा से पीछे हट जाता है, तो छल के लिए आपराधिक अभियोजन की अनुमति नहीं दी जाएगी।”

अभियोजन के लिए सरकार की मंजूरी की आवश्यकत्ता

17.मोहिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य 2001 क्रि० एल० जे० 2329 (पंजाब और हरियाणा),में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि बिहार राज्य बनाम पी० पी० शर्मा 1991 क्रि० एल० जे०1438 (एस० सी०),शंभू नाथ मिश्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’1997 क्रि० एल० जे० 2491 (एस० सी०). और केरल राज्य बनाम पद्मनाभन नायर 1999 क्रि० एल० जे० 3696 (एम० सी०), में उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधि के अनुसार प्रथम दृष्ट्या यह स्पष्ट है कि छल और मिथ्या अभिलेख बनाने तथा लोक निधि के दुर्विनियोग से संबंधित अपराधों के लिए और उपरोक्त अपराधों के संबंध में धारा 120 ख के अधीन आपराधिक षड़यंत्र के लिए लोक सेवक के अभियोजन के लिए सरकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।

18.मोबारिक अली बनाम राज्य एवं आई आर 1957 एस०सी० 857 अधिकारिता – एक पाकिस्तानी नागरिक, जिसका कारबार कराची में था, ने परिवादी, जिसका कारबार मुंबई में था, को पन्नों, तारों और दूरभाष से यह मिथ्या व्यपदेशन किया कि उसके पास अच्छी कोटि का चावल तत्काल उपलब्ध है, उसने उस चावल को भेजने के लिए जहाज में स्थान आरक्षित करवा रखा है, और रकम प्राप्त होते ही वह चावल रवाना कर देगा। परिवादी ने रकम भेज दी, पर उसे कोई चावल प्राप्त नहीं हुआ। यह अभिनिर्धारित किया गया कि छल के अपराध के सभी आवश्यक तत्व मुंबई में घटित हुए, और यद्यपि अभियुक्त पाकिस्तानी नागरिक शारीरिक रूप में मुंबई में उपस्थित नहीं था, भारतीय दंड संहिता की धारा 2 के अन्तर्गत मुंबई के न्यायालयों को इस मामले का विचारण करने की अधिकारिता प्राप्त है।

19.माधव हायावादनराव  होस्कोट बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1978 एस. सौ० 1508 दंड – जहाँ अभियुक्त, जिसने एम० एस-सी०, पी-एच० डी० की डिग्री प्राप्त कर रखी थी, को कूटकृत विश्वविद्यालय डिग्रियां जारी करने के प्रयत्न के लिए दोषसिद्ध किया गया, और सेशन न्यायालय के द्वारा न्यायालय उठने तक के दंड से दंडित किया गया, यह अभिनिर्धारित किया गया कि उक्त दंडादेश अपराध की गम्भीरता के आनुपातिक नहीं था, और कारावास को अवधि दो-तीन वर्ष तक बढ़ाया जाना उचित होगा।

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