408 IPC IN HINDI

408 IPC लिपिक या सेवक द्वारा आपराधिक न्यासभंग –

जो कोई लिपिक(Clerk) या सेवक (Servant)होते हुए, या लिपिक या सेवक के रूप में नियोजित होते हुए , और इस नाते किसी प्रकार सम्पत्ति , या सम्पत्ति पर कोई भी अख्त्यार अपने में न्यस्त होते हुए , उस सम्पत्ति के विषय में आपराधिक न्यासभंग( 405 IPC ) करेगा , वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से , जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी , दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से दण्डनीय होगा ।

इस धारा के अधीन अपराध संज्ञेय , अजमानतीय और

शमनीय है , जब सम्पत्ति का मूल्य दो सौ पचास रुपये से अधिक नहीं है और ऐसा करने के लिए विचारणीय न्यायालय ने अनुमति दे दी हो , और

यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है ।

 

सुप्रीम  कोर्ट  के 405  IPC से  संबंधित  निर्णय

1.कांतिलाला गेंदालाल शाह बनाम राज्य , ए ० आई ० आर ० 1974 एस ० सी ० 222  मे अपीलार्थी , जिसके पास सोसाइटी के कोष को अधिकार था , जो उसे न्यस्त किया गया था , ने लेखाकार को मिथ्या क्रास प्रविष्टि करने का आदेश दिया , यह अभिनिर्धारित किया गया कि इससे उसके द्वारा बेईमानी से दुर्विनियोग का निष्कर्ष निकाला जा सकता है ।

परन्तु

2. जगन नाथ बनाम राज्य , ए ० आई ० आर ० 1976 एस ० सी ० 1132 मे किसी सहकारी सोसाइटी के अध्यक्ष और कुछ अन्य सदस्यों के विरुद्ध भंडार में रखी हुई सम्पत्ति का आपराधिक न्यासभंग किए जाने का आरोप इस आधार पर लगाया गया कि रात्रि में भंडार की चाबियां अध्यक्ष के पास रहती थीं , यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह आरोप साबित करने के लिए परिस्थितियां और अधिक शक्तिशाली होनी चाहिए ।

3. राज्य बनाम केसरी चन्द , 1987 क्रि ० एल ० जे ० 549 ( पंजाब और हरियाणा )   किसी सहकारी सोसाइटी के अध्यक्ष और सचिव को सोसाइटी के धन का अधिकार न्यस्त किया गया , और उन्होंने बेईमानी से उसका दुर्विनियोग किया , उन्हें धारा 409 के अधीन नहीं बल्कि धारा 408 के अधीन दंडित किया गया ।

4. दादाराव बनाम राज्य , ए ० आई ० आर ० 1974 एस ० सी ० 388 मे कारबार की प्रकृति और लेखा रखने का ढंग बगैर साबित किए हुए लेखा बही में की गई प्रविष्टियां सम्पत्ति का न्यस्त किया जाना साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ।

5.राम किशन बनाम राज्य , 1992 क्रि ० एल ० जे ० 951 ( राजस्थान ) मे धारा 408 के अधीन एक मामले में कम रकम के सन्दर्भ में बेईमानी से दुर्विनियोग का आरोप था , और विचारण में चौदह वर्ष लग चुके थे , यह अभिनिर्धारित किया गया कि तीन माह के कारावास के आदेश को कम कर अभियुक्त जितना कारावास भुगत चुका था उतनी अवधि का कारावास तथा जुर्माने का दंडादेश उचित होगा ।

6. बृजमोहनबनाम राज्य ( 1985 ) 2 डब्ल्यू ० एल ० एन ० 47जहाँ इस धारा के अधीन एक मामले में विचारण में पर्याप्त समय लग गया , और अभियुक्त को एक बड़े परिवार का भरण – पोषण करना पड़ता था और उसकी पुत्री का विवाह भी करना था , दो वर्ष के कारावास के दण्डादेश को परिवर्तित कर उतनी अवधि तक का कर दिया गया जितनी अवधि का कारावास वह भुगत चुका था ।

 

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