394 IPC IN HINDI

394 IPC Explanation In Kanoon Ki Roshni Mein Words

यदि कोई व्यक्ति [अपराधी] लूट करने में या लूट का प्रयत्न करने में सोच-समझकर अपनी मर्जी से किसी भी अन्य व्यक्ति[victim] को शारीरिक दर्द या बीमारी या साधारण कमजोरी,साधरण चोट [hurt] कारित करेगा, तो ऐसा व्यक्ति और जो कोई अन्य व्यक्ति जो साथ मे मिला हुआ है और मिलकर साथ मे ऐसी लूट या लूट का प्रयत्न [प्रयास] करते है, वह आजीवन कारावास से या, दस वर्ष तक कठिन कारावास की अवधि हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

Note निम्नलिखित कानूनी परिभाषा भी देखें।

                                                                         

394 ipc लूट करने में स्वेच्छया उपहति कारित करना

यदि कोई व्यक्ति लूट करने में या लूट का प्रयत्न करने में स्वेच्छया उपहति कारित करेगा , तो ऐसा व्यक्ति और जो कोई अन्य व्यक्ति ऐसी लूट करने में , या लूट का प्रयत्न करने में संयुक्त तौर पर संपृक्त होगा , वह आजीवन कारावास से या कठिन कारावास से , जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी , दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा ।

इस धारा के अधीन अपराध संज्ञेय , गैर जमानतीय और अशमनीय(समझौता नही किया जा सकता  ) है , और यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है

सुप्रीम  कोर्ट  के 394 IPC से  संबंधित  निर्णय

1.बिहारीलाल बनाम राज्य , 1985 क्रि ० एल ० जे ० 1507 ( दिल्ली ):-   , क , ख और ग साथ – साथ परिवादी के पास गए , और क ने उसकी ओर एक चाकू घुमाया , और फिर वे तीनों उसे निकट ही झाड़ियों में ले गए , और क और ग ने ख की उपस्थिति में उसकी कलाई घड़ी और नकदी ले ली , यह अभिनिर्धारित किया गया कि ख के साथ क और ग का लूट करने का सामान्य आशय था ।

2.नागप्पा डोन्डिवा बनाम राज्य , ए ० आई ० आर ० 1980 एस ० सी ० 1753 . ए ० आई ० आर ० 1992 एस ० सी ० 1032 :-  मृतक के कुछ गहनों का जो चोरी चले गये थे , भारतीय साक्ष्य अधिनियम , 1872 की धारा 27 के अर्थ में अभियुक्त से प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप पता चला , धारा 394 या धारा 302 के अधीन उसकी दोषसिद्धि नहीं की जा सकती जब तक कि इन धाराओं के अधीन आरोप उसके विरुद्ध साबित न कर दिया जाए , और उचित यही होगा कि उसे संहिता की धारा 411 के अधीन दोषसिद्ध किया जाए पुत्तन बनाम राज्य में अभियुक्त को दो अन्य व्यक्तियों के साथ संहिता की धाराओं 394 और 397 के अधीन आरोपित किया गया । गिरफ्तारी के छह माह पश्चात् शिनाख्त परेड हुई । यह अभिनिर्धारित किया गया कि ऐसे शिनाख्त के साक्ष्य पर दोषसिद्धि आधारित नहीं हो सकती , और उस परिस्थिति में तो यह और भी ऐसा होगा जब उसी साक्ष्य पर सहअभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया गया था ।

3. पी ० वी ० पैन्द बनाम राज्य • 1995 क्रि ० एल ०  जे ० 1694 ( मुंबई ) में मुंबई उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि चूंकि धारा 392 के अधीन अपराध धारा 394 के अधीन अपराध की तुलना में एक कम गम्भीर अपराध है , अत :अभियुक्त को धारा 394 के अधीन अपराध के लिए दोषसिद्ध करने के पश्चात् उसे धारा 392 के अधीन अपराध के लिए दोषसिद्ध नहीं किया जाना चाहिये ।

4.श्रवण दशरथ दजांगे बनाम महाराष्ट्र राज्य 1998 क्रि ० एल ० जे ० 1196 ( मुंबई ) में उच्च न्यायालय ने धाराओं 394 और 397 के बीच अन्तर स्पष्ट करते हुए यह कहा कि धारा 397 के अधीन दायित्व केवल व्यक्तिगत है जबकि धारा 394 के अधीन दायित्व व्यक्तिगत और प्रतिनिधिक दोनों ही है । इस प्रकार धारा 394 के अधीन न केवल वह व्यक्ति जिसने उपहति कारित की है उत्तरदायी होता है बल्कि वह भी समान रूप से दोषी होगा जो उस व्यक्ति के साथ सम्मिलित है ।

5.परमजीत सिंह बनाम राजस्थान राज्य 2001 क्रि ० एल ० जे ० 757 ( राज ० ) में अभियक्त के विरुद्ध संहिता की धाराओं 397 और 34 के अधीन सामान्य आशय को अग्रसर करते हुए कार की लूट और घोर उपहति के प्रयत्न का आरोप था । राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि धारा 397 केवल उन मामलों में लागू होती है जब अपराधी आयुध का प्रयोग स्वयं करता है । इसके अधीन आन्वयिक दायित्व की कोई गुंजाइश नहीं है । लूट कारित करते हुए घोर उपहति तो नहीं पर उपहति कारित की गई । धाराओं 397 और 34 के अधीन आरोप साबित नहीं हुए । अभियुक्त को धारा 394 के अधीन दोषी ठहराया गया ।

6.साथी प्रसाद बनाम राज्य 1973 क्रि ० एल ० जे ० 344 ( एस ० सी ० ) में किसी व्यक्ति की डूबकर मृत्यु हो जाने के पश्चात् एक नाविक ने उसके शरीर से एक स्वर्ण घड़ी , स्वर्ण आभूषण और नकदी ले ली , परन्तु अभियुक्त हेड कांस्टेबिल ने नाविक के विरुद्ध बल प्रयोग कर उसे थप्पड़ मारकर उससे उपर्युक्त वस्तुएं ले लीं , और उसने रिकार्ड में उन वस्तुओं के विवरण दर्ज नहीं किये और उनको बेईमानी से अपने पास रख लिया । उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अभियुक्त ने धाराओं 394 और 404 के अधीन अपराध किया ।

7.व्ही ० ए ० जॉर्ज बनाम अब्राहम ऑगस्टाइन 2012 क्रि ० एल ० जे ० 3355 ( केरल ) में गाड़ी के क्रेता और वित्त कम्पनी के बीच आडमान का करार था । रकम अदायगी में व्यवधान होने पर कम्पनी ने बलपूर्वक गाड़ी को अपने कब्जे में ले लिया । करार में उल्लिखित सिविल न्यायालय या माध्यस्थम् की कार्यवाही अन्तरिम राहत के रूप में नहीं की गयी । केरल उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संहिता की धारा 394 के अधीन अपराध का संज्ञान लेने का आदेश उचित था । चेन्नई में रह रहे कम्पनी के अध्यक्ष को ऐसी किसी कार्यवाही का कदाचित् प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होगा । अत : उसके विरुद्ध की जाने वाली कार्यवाही को अपास्त कर दिया गया ।

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