KOLKATA RAPE AND MUDER CASE

क्या पीड़िता की पहचान बताना अपराध है ? Is it a crime to reveal the identity of the victim ?

हेलो फ्रेंड्स वेलकम कानून की रोशनी की वेबसाइट पर ।

कोलकाता रेप एंड मर्डर केस का शोर पूरे देश में गूंज रहा है हजारों डॉक्टर धरने पर बैठे हैं कुछ अस्पताल बंद चल रहे हैं कुछ व्यक्ति जो पीड़िता है उसके इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं तो कुछ डॉक्टर की सेफ्टी को सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं और बरहाल सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को यानी की 20 अगस्त को सुनवाई हुई तो जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई कि जो रेप विक्टिम है उसके नाम और उसकी आइडेंटी को कैसे डिस्क्लोज किया जा रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से और हर जगह से जो रेप विक्टिम है उसकी आइडेंटी को हटाया जाए।

तो फिलहाल आज हम बात करने वाले हैं कि अगर कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो तो क्या वह एक पनिशेबल ऑफेंस है तो इसका आंसर है हां यह पनिशेबल ऑफेंस है ।

आईपीसी की सेक्शन नंबर 228 A मैं अगर किसी भी रेप विक्टिम की आइडेंटी को डिस्क्लोज किया जाता है तो वह पनिशेबल ऑफेंस है लेकिन अब हम सभी जानते हैं कि 1 जुलाई 2024 से आईपीसी की जगह अब ले ली है भारतीय न्याय संहिता मैं तो भारतीय न्याय संहिता में भी यह प्रोविजन किया गया है अकॉर्डिंग टू द सेक्शन ऑफ 72 का भारतीय न्याय संहिता अगर कोई भी व्यक्ति किसी भी रेप विक्टिम की पहचान को उजागर करता है चाहे उसका नाम हो या कोई और डिटेल हो तो वह भी एक पनिशेबल ऑफेंस है जिसके लिए उसे 2 साल तक का कारावास और फाइन की सजा सुनाई जा सकती है हालांकि कुछ एक्सेप्शन भी है कि अगर कोई भी पुलिस ऑफिसर जो इन्वेस्टिंग गेटिंग ऑफिसर है या SHO है अगर वह इन्वेस्टिगेशन करके पेपर्स से बोनाफाइड लिक करता है तो वह ऑफेंस नहीं होगा अगर विक्टिम स्वयं कर रही है उसके प्राधिकार से किया जा रहा है तो वह ऑफेंस नहीं है या अगर विक्टिम अनसाउंड माइंड है या माइनर है या मर चुका है तो उसके लिए जो क्लोज रिलेटिव है अगर उनके प्राधिकार से या उनकी इच्छा से किया जा रहा है उसकी पहचान को उजागर तो वह ऑफेंस नहीं है। ।

तो यह तीन एक्सेप्शन भी जो विक्टिम की आइडेंटिटी को उजागर कर सकते हैं

बट अगर कोई भी व्यक्ति किसी भी रेप विक्टिम की पहचान को उजागर करता है तो यह पनिशेबल ऑफेंस है और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने भी फटकार लगाई है और सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले 2018 के निपुण सक्सेना वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में भी कहा था कि रेप विक्टिम की आइडेंटिटी को डिस्क्लोज नहीं किया जाना चाहिए और 20 अगस्त को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले का हवाला देते हुए कहा की तुरंत सभी प्लेटफार्म से सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से रेप विक्टिम की आइडेंटिटी को डिस्क्लोज किया जाए।

जानिए नए कानून मे भारतीए न्याय संहिता 2024 की धारा 72 बीएनएस

* BNS 72 के बारे में !

72. कतिपय अपराधों आदि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान का प्रकटीकरण. – (1) जो कोई किसी नाम या अन्य बात को, जिससे किसी ऐसे व्यक्ति की (जिसे इस धारा में इसके पश्चात् पीड़ित व्यक्ति कहा गया है) पहचान हो सकती है, जिसके विरुद्ध धारा 64 या धारा 65 या धारा 66 या धारा 67 या धारा 68 या धारा 69 या धारा 70 या धारा 71 के अधीन किसी अपराध का किया जाना अभिकयित है या किया गया पाया गया है, मुद्रित या प्रकाशित करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने का भी दायी होगा।

(2) उपधारा (1) की किसी भी बात का विस्तार किसी नाम या अन्य बात के मुद्रण या प्रकाशन पर, यदि उससे पीड़ित व्यक्ति की पहचान हो सकती है, तब नहीं होता है जब ऐसा मुद्रण

या प्रकाशन-

(क) पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के या ऐसे अपराध का अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी के, जो ऐसे अन्वेषण के प्रयोजनों के लिए स‌द्भावपूर्वक कार्य करता है, द्वारा या उसके लिखित आदेश के अधीन किया जाता है; या

(ख) पीड़ित व्यक्ति द्वारा या उसके लिखित प्राधिकार से किया जाता है; या

(ग) जहां पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है या वह बालक या विकृत चित्त है. वहां, पीड़ित व्यक्ति के निकट संबंधी द्वारा या उसके लिखित प्राधिकार से, किया

जाता है :

परन्तु निकट संबंधी द्वारा कोई भी ऐसा प्राधिकार किसी मान्यताप्राप्त कल्याण संस्था या संगठन के अध्यक्ष या सचिव से, चाहे उसका जो भी नाम हो, भिन्न किसी अन्य व्यक्ति को नहीं दिया जाएगा । स्पष्टीकरण. – इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए, “मान्यताप्राप्त कल्याण संस्था या संगठन” से केन्द्रीय या राज्य सरकार द्वारा इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए किसी मान्यताप्राप्त कोई समाज कल्याण संस्था या संगठन अभिप्रेत है ।

अपराध का वर्गीकरण : धारा 72(1) के अधीन अपराध, संज्ञेय; जमानतीय; अशमनीय; और कोई भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

पुराने कानून मे आईपीसी लोगु थी इस अपराध के लिए 228A आईपीसी

ipc 228A

Ipc 228A——-

228-क. कतिपय अपराधों आदि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान का

प्रकटीकरण – (1) जो कोई किसी नाम या अन्य बात को जिससे किसी ऐसे व्यक्ति की (जिसे इस धारा में इसके पश्चात् पीड़ित व्यक्ति कहा गया है) पहचान हो सकती है, जिसके विरुद्ध 2 [ धारा 376, 3[ धारा 376- क, धारा 376-कख, धारा 376-ख, धारा 376-ग, धारा 376-घ, धारा 376-घक, धारा 376-घख] या धारा 376-ङ] के अधीन किसी अपराध का किया जाना अभिकथित है या किया गया पाया गया है, मुद्रित या प्रकाशित करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

(2) उपधारा (1) की किसी भी बात का विस्तार किसी नाम या अन्य बात के मुद्रण या प्रकाशन पर,

यदि उससे पीड़ित व्यक्ति की पहचान हो सकती है, तब लागू नहीं होता है, जब ऐसा मुद्रण या प्रकाशन – (क) पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा या उसके लिखित आदेश के अधीन अथवा ऐसे

अपराध का अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा, जो ऐसे अन्वेषण के प्रयोजनों के लिए सद्भावपूर्वक कार्य करता है, या उसके लिखित आदेश के अधीन किया जाता है; या

(ख) पीड़ित व्यक्ति द्वारा या उसके लिखित प्राधिकार से किया जाता है; या

(ग) जहां पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है अथवा वह अवयस्क या विकृतचित्त है वहाँ, पीड़ित व्यक्ति के निकट सम्बन्धी द्वारा या उसके लिखित प्राधिकार से, किया जाता है :

परन्तु निकट सम्बन्धी द्वारा कोई ऐसा प्राधिकार किसी मान्यताप्राप्त कल्याण संस्था या संगठन के अध्यक्ष या सचिव से, चाहे उसका जो भी नाम हो, भिन्न किसी व्यक्ति को नहीं दिया जाएगा।

स्पष्टीकरण – इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए, “मान्यताप्राप्त कल्याण संस्था या संगठन” से केन्द्रीय या राज्य सरकार द्वारा इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए मान्यताप्राप्त कोई समाज कल्याण संस्था या संगठन अभिप्रेत है।

(3) जो कोई व्यक्ति उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी अपराध की बाबत किसी न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही के सम्बन्ध में, उस न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना कोई बात मुद्रित या प्रकाशित करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

स्पष्टीकरण – किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के निर्णय का मुद्रण या प्रकाशन इस धारा के अर्थ में अपराध की कोटि में नहीं आता है।]

इस धारा को भारतीय दंड संहिता में दण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 1983 (1983 का अधिनियम 43) द्वारा मुख्यतः यौन अपराध के पीड़ित के सामाजिक निर्वासन या उत्पीड़न को रोकने के लिए जोड़ा गया। 1983 के इसी अधिनियम द्वारा बलात्संग के अपराध से सम्बन्धित धाराओं 375 और 376 में सशक्त परिवर्तन किया गया, और साथ ही बलात्संग के अतिरिक्त अन्य यौन अपराधों को दंडित करने के लिए धाराएं 376-क, 376-ख, 376-ग और 376-घ अधिनियमित की गईं। दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 द्वारा धारा 376ङ अधिनियमित की गई।

धारा 228-क कतिपय अपराध आदि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान के प्रकटीकरण को दंडित करती है। इसकी उपधारा (1) के अनुसार, जो कोई किसी नाम या अन्य बात को, जिससे किसी ऐसे व्यक्ति की पहचान हो सकती है जिसके विरुद्ध धारा 376, धारा 376-क, धारा 376 कख, धारा 376-ख, धारा 376-ग, धारा 376-घ, धारा 376-घक, धारा 376-घख या धारा 376ङ के अधीन किसी अपराध का किया जाना अभिकथित है, या किया गया पाया गया है, मुद्रित करेगा या प्रकाशित करेगा, वह दो वर्ष तक के सादा या कठिन कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। इस धारा की उपधारा (2) के अनुसार, पीड़ित व्यक्ति के नाम अथवा उसके मामले का अभिज्ञान किए जाने के लिए किसी मुद्रण मुद्रण या प्रकाशन पर उपधारा (1) लागू नहीं होगी, यदि ऐसा मुद्रण या प्रकाशन (क) ऐसे अपराध का अन्वेषण करने वाले पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी अथवा पुलिस अधिकारी के ऐसे अन्वेषण के प्रयोजन के लिए सद्भावपूर्वक लिखित आदेश से या के अन्तर्गत है, अथवा (ख) पीड़ित व्यक्ति के लिखित प्राधिकार से या सहित है, अथवा (ग) पीड़ित व्यक्ति के समीपी सम्बन्धी के लिखित प्राधिकार से या सहित है, यदि पीड़ित मृत या अल्पवयस्क या विकृतचित्त है, किन्तु समीपी सम्बन्धी द्वारा ऐसा कोई प्राधिकार किसी भी नाम से विदित किसी मान्यताप्राप्त जनकल्याणकारी संस्था या संगठन के सभापति या सचिव से अन्यथा किसी व्यक्ति को न दिया जाएगा। इस उपधारा के साथ जोड़े गए स्पष्टीकरण के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि जनकल्याणकारी संस्था या संगठन सामाजिक और केन्द्र या राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त ही होना चाहिए।

इस धारा की उपधारा (3) के अनुसार, उपधारा (1) में निर्देशित किसी अपराध के सम्बन्ध में किसी न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही से सम्बन्धित कोई ऐसी बात न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना मुद्रित या प्रकाशित करने वाला दो वर्ष तक के सादा या कठिन कारावास से दंडित किया जाएगा, और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। इसके साथ दिए गए स्पष्टीकरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के निर्णय का मुद्रण या प्रकाशन इस धारा के अधीन अपराध नहीं है।

भारत की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही यह उचित समझा गया है कि धारा 376, 376-क, धारा 376-ख, धारा 376-ग, धारा 376-घ या धारा 376ङ के अधीन दंडनीय अपराध के पीड़ित व्यक्ति की मुद्रण या प्रकाशन द्वारा पहचान या प्रकटीकरण दंडनीय अपराध होना चाहिए, और इस कारण ही धारा 228-क अधिनियमित की गई कि वह पीड़ित व्यक्ति जो पूर्व में ही इस प्रकार के शारीरिक और मानसिक आघात से गुजर चुकी हो उसे इससे अधिक और अन्य दयनीय स्थितियों से होकर गुजरना न पड़े।

आर० लक्ष्मीपति बनाम रामलिंगम’ में अपने समाचार पत्र में एक बलात्संग पीड़ित युवती का नाम प्रकाशित करने के लिए याची अभियुक्त के विरुद्ध परिवाद दाखिल किया गया। मद्रास उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दस्तावेजों में से एक, उत्तर सूचना, जिसे परिवाद के साथ ही दाखिल किया गया, को देखने से यह स्पष्ट होता है कि प्रकाशन एक कल्याण संस्था के प्राधिकार की लिखित प्रार्थना पर किया गया था, अतः अभियुक्त को धारा 228-क के अधीन दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सुने जाने के अधिकार (लोकस स्टैन्डाई) के बारे में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 228-क परिवाद दाखिल करने वाले व्यक्ति की पात्रता के सम्बन्ध में नहीं बतलाती, अतः परिवादी, जो कि समाचार-पत्र निकालने वाले याचियों का पदच्युत कर्मचारी है, के द्वारा दाखिल निजी परिवाद विधिमान्य है।

भूपिंदर शर्मा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि बलात्संग पीड़ित स्त्री की पहचान उजागर करना दंडनीय अपराध है।

कर्नाटक राज्य बनाम पुत्तराजा’ में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि बलात्संग पीड़ित महिला की पहचान प्रकट करना दंडनीय अपराध है। न्यायिक निर्णयों में ऐसी पीड़ित स्त्री का नाम उजागर करना अनुचित है। इसके पृष्ठ में उद्देश्य पीड़ित का सामाजिक उत्पीड़न या बहिष्कार रोकना है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि विचारण न्यायालय द्वारा अपराधी के विरुद्ध पांच वर्ष के कारावास के दंडादेश को उच्च न्यायालय ने बाईस दिन के दंडादेश में परिवर्तित करते समय धारा 376 में उल्लिखित “पर्याप्त और विशेष” कारणों का उल्लेख नहीं किया, अतः पांच वर्ष के कारावास के दंडादेश को बहाल करना ही उचित है, विशेषकर इसलिये भी क्योंकि राज्य ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं किया था।

दिनेश बनाम राजस्थान राज्य में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि धारा 228-क में यद्यपि उच्च न्यायालयों या उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के मुद्रण और प्रकाशन पर कोई निर्बन्धन नहीं है तथापि यौन अपराध की पीड़ित की सामाजिक पीड़ा या बहिष्कार को रोकने के सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुये उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों और निचले न्यायालयों के निर्णयों में पीड़ित का नाम नहीं लिखा जाना चाहिये। इस मामले में पीड़ित की आयु आठ वर्ष थी।

उड़ीसा राज्य बनाम सुकरू गौड़ा में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि स्त्रियों के विरुद्ध किये जाने वाले अपराध में पीड़ित के नाम को प्रकट करने पर निर्बन्धन को न्यायालय के द्वारा न मानना न्यायिक अनुशासनहीनता का द्योतक है।

इस धारा के अधीन अपराध असंज्ञेय, जमानतीय और अशमनीय है, और यह किसी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

229. जूरी सदस्य या असेसर का प्रतिरूपण – जो कोई किसी मामले में प्रतिरूपण द्वारा या अन्यथा, अपने को यह जानते हुए जूरी सदस्य या असेसर के रूप में तालिकांकित, पेनलित या गृहीतशपथ साशय कराएगा या होने देना जानते हुए सहन करेगा कि वह इस प्रकार तालिकांकित, पेनलित या गृहीतशपथ होने का विधि द्वारा हकदार नहीं है या यह जानते हुए कि वह इस प्रकार तालिकांकित, पेनलित या गृहीतशपथ विधि के प्रतिकूल हुआ है, ऐसे जूरी में या ऐसे असेसर के रूप में स्वेच्छया सेवा करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।

 

 

 

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